Ashadh ka fir vahi ek din - 1 in Hindi Moral Stories by PANKAJ SUBEER books and stories PDF | आषाढ़ का फिर वही एक दिन - 1

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आषाढ़ का फिर वही एक दिन - 1

आषाढ़ का फिर वही एक दिन

(कहानी: पंकज सुबीर)

(1)

टिंग-टिड़िंग टिड़िंग-टिड़िंग, टिंग-टिड़िंग टिड़िंग-टिड़िंग, ये मोबाइल का अलार्म है । जो रोज़ सुबह खंडहर हो चुके सरकारी आवासों वाली तीन मंज़िला बिल्डिंग के दूसरे माले में बजता है । क़तार में खड़ी, पीले रंग से पुती हुई इन बिल्डिंगों में कई कई परिवार समाये हुए हैं । समाये हुए हैं दो कमरों, किचिन, लेट बाथ वाले मकानों की दुनिया में । उन्हीं में से एक मकान में ठीक पाँच बजे बजता है ये मोबाइल । वैसे तो लगभग हर घर में इसी समय किसी न किसी रूप में ये अलार्म बजता है । मगर कहानी चूँकि भार्गव बाबू की है सो बात को उन तक ही केन्द्रित रखा जाये । छोटे, पुराने, घिसे हुए मोबाइल के अलार्म की आवाज़ सुनकर जाग उठते हैं भार्गव बाबू । जाग कर पहले अपनी हथेलियों को देखते हैं । किसी पत्रिका में जब से पढ़ा है कि लक्ष्मी लाने का ये एक तरीका है तब से वे ऐसा करने लगे हैं । हालाँकि उन्होंने ‘कराग्रे वसते लक्ष्मी....’ को भी शुरू शुरू में याद करने की कोशिश की थी, क्योंकि पत्रिका में लिखा था कि हथेलियों को देखते समय इस श्लोक को साथ में पढ़ना है । मगर, वे याद नहीं कर पाये । एक दो बार ऐसा लगा भी याद हो गया है, किन्तु, कराग्रे वसती के बाद के शब्द याद ही नहीं आ पाते । अब वे खाली हथेलियों को ही देखते हैं । हथेलियों को देखने के बाद भार्गव बाबू के मुँह से एक स्थायी स्वर निकलता है ‘ए ऽऽऽ’ । यह स्वर पास में सो रही पत्नी को जगाने के लिये होता है । उत्तर में पत्नी का स्वर आता है ‘हूँ ऽऽऽ’ । इस ए और हूँ के साथ दोनों की सुबह हो जाती है । भार्गव बाबू बिस्तर से उठ खड़े होते हैं । मँझोले क़द, लगभग गंजा सिर, तोंद बहुत ज़्यादा से कुछ कम, हर आकार के छेदों से युक्त आस्तीन वाली बनियान और पट्टे वाली चड्डी पहने ये हैं पचास वर्षीय भार्गव बाबू । होंगे पचास से शायद कुछेक ऊपर ही । गंजे सिर और बनियान को हटा दिया जाये तो पत्नी भी लगभग ऐसी ही है । दोनों की बीमारियाँ भी लगभग समान ही हैं । बीपी, डायबिटिज़, कोलेस्ट्राल । पत्नी को थायराइड के रूप में एक अतिरिक्त बीमारी की बढ़त हासिल है । बीमारियों के आगमन के बाद से ही शैल्फ में आसव, अमृत, पुष्पी, रिष्ट जैसे प्रत्ययों से युक्त बोतलें आ गईं हैं । दोनों पूरी श्रद्धा के साथ इनका सेवन करते हैं, किन्तु, बीमारियाँ भी उतनी ही श्रद्धा के साथ डटी हुई हैं ।

भार्गव बाबू बिस्तर छोड़ने के बाद पहला काम दवा लेने का ही करते हैं । एक आसव सुबह उठते ही पीना होता है । भार्गव बाबू ने एक चम्मच आसव पिया और लेट-बाथ में से ‘लेट’ की तरफ निकल गये । इन सरकारी आवासों में लेट-बाथ अलग अलग हैं । भार्गव बाबू पहली बार ‘लेट’ जाते हैं तो लेट से कुछ लेट निकलते हैं । असंतुष्ट से । पत्नी तब तक चाय बना चुकी होती है । भार्गव बाबू पहले ताँबे के लोटे में रात भर का रखा हुआ पानी पीते हैं और फिर चाय का गिलास लेकर बाहर के कमरे में आ जाते हैं । गिलास इसलिये कि ये भार्गव बाबू की एकमात्र चाय है जो वो दिन भर में पीते हैं । एक बार में ही पूरा गिलास भर के मन भर के पी लेते हैं । बाहर के कमरे में उनका बेटा सोता है । बेटी की पिछले साल शादी कर चुके हैं । बेटा पढ़ाई पूरी कर चुका है और अब दोस्तों की मोटरसाइकल पर भोपाल की सड़कों के विन्यास और भौगोलिक स्थिति पर शोध कर रहा है । कुल मिलाकर ये कि सड़कें नाप रहा है । भार्गव बाबू के साथ बेटे के संबंध ऐसे हैं कि बेटा अपनी तरफ से मधुर रखता है, किन्तु भार्गव बाबू मधुर होने नहीं देते । उनका सोचना है कि संबंध मधुर हो गये तो बेटा पैसे माँगने में वैसे नहीं हिचकेगा जैसे आज हिचकता है । चाय पीने का कार्यक्रम बहुत अनौपचारिक सा होता है । उसके बाद भार्गव बाबू फिर से अंदर के कमरे में जाते हैं । बेटे के रिटायर हो चुके लोअर और टी शर्ट, जो अब उनके हो चुके हैं को पहनते हैं, मोबाइल उठाते हैं और निकल पड़ते हैं ।

भार्गव बाबू के मकान के ठीक पीछे ही एक बड़ा सा मैदान है। उसी में सुबह की सैर पर जाते हैं भार्गव बाबू । पहले नहीं जाते थे, डायबिटीज होने के बाद जाने लगे हैं । साढ़े पाँच से छः के बीच के समय में । वे अभी भी सैर कर रहे हैं । कोशिश करते हैं तेज़ तेज़ चलने की, मगर कुछ क़दम चल कर ही स्पीड धीमी करनी पड़ती है । जब स्पीड धीमी करते हैं तो बुदबुदा कर एक बार स्वयं को गाली देते हैं, इस बात के लिये कि अब दौड़ने की भी ताक़त नहीं बची है उनमें । भार्गव बाबू की ये एक और विशेषता है जिसे यहाँ साइलेंट पर रखा गया है, वो है हर वाक्य में कम से कम दो गालियाँ । और यदि किसी एक वाक्य में दो गालियाँ आ रही हैं तो उनमें अनुप्रास अलंकार अवश्य हो । इसके साथ साथ वे ‘तीन जूते’ मारने की बात भी जोड़ देते हैं । मोबाइल बज रहा है । केवल समय देखने के लिये मोबाइल को सैर पर लाते हैं लेकिन यहाँ भी बज उठता है कमबख़्त । ‘हाँ गोंई बोलो’ भार्गव बाबू हलो के साथ उत्तर नहीं देते, हाँ गोंई (दोस्त) के साथ ही मोबाइल शुरू करते हैं। उधर से कोई अपने प्रमाण पत्र की याद दिलाने के लिये कॉल कर रहा है । ‘तो गोंई अब ऐसा करो कि मेरे घर ही आकर बैठ जाओ, आपने पैसे दिये हैं तो अब तो आपने ख़रीद लिया है हमें । अब सुबह छः बजे से रात के दस बजे तक आप चाहे जब फोन कर लो ।’ इस बीच में भार्गव बाबू तीन प्रकार की गालियाँ, पाँच बार कथन में समाविष्ट कर चुके हैं । उधर वाला आदमी यक़ीनन शर्मिंदा हो रहा होगा सुबह सुबह गालियाँ खाकर । मगर वो भी क्या करे उसकी अटकी पड़ी है । कॉल कट चुका है और भार्गव बाबू फिर से सैर पर कन्सन्ट्रेट हो गये हैं । मोबाइल फिर से बजता है । ‘तो गोंई ऐसा करो तुम शिकायत कर दो मेरी कि मैंने तुमसे रिश्वत ली है.....।’ भार्गव बाबू ग़ुस्से में हैं । ‘जब कह रहे हैं कि आपकी फाइल साहब की टेबल पर है, जब साहब दस्ख़त करेंगे तभी तो दूँगा आपको काग़ज़, कि वैसे ही दे दूँ बिना दस्ख़त के ?’ दस्तख़त को छोटा करके केवल दस्ख़त बोलते हैं भार्गव बाबू । ये कॉल भी कट गया है । सुबह की सैर फिर से पूर्ववत जारी है । मोबाइल फिर से बजा है मगर इस बार भार्गव बाबू के तेवर बदले हुए हैं । ‘नहीं सर मैं तो वैसे भी सैर कर रहा हूँ ।’ इस बार उधर साहब हैं । फिर कुछ प्रकार का होता है ‘हओ’ ‘.......’ ‘हओ’ ‘.......’ । उधर से बार बार कुछ कहा जाता है और भार्गव बाबू हर बार केवल हओ (हाँ) कह रहे हैं । बीच में कुछ दिन उन्होंने योगा भी करने की कोशिश की थी लेकिन मोबाइल के साथ सैर तो हो सकती है योगा नहीं । सैर के दौरान वे सैर कर रहे अन्य लोगों से पहचान का प्रयास भी नहीं करते, यदि कोई करता है तो उसे भी इग्नोर कर देते हैं । आदमी पहचान बढ़ा कर ऑफिस आ जाये और बिना पैसे दिये काम करवा ले जाये तो ? इसी चक्कर में वे आस पड़ोस के लोगों से भी संबंध नहीं रखते । पास पड़ोस में संबंध न रखने का एक कारण और ये भी है कि यदि आप पड़ोसियों के घर जाएँगे तो वे भी आपके यहाँ आएँगे । यदि आप उनके घर चाय नाश्ता करके आएँगे तो वे भी आपके यहाँ करना चाहेंगे । भार्गव बाबू मानते हैं कि पड़ोसियों से संबंध रखने में ये दो तरफा नुकसान है एक तो चाय नाश्ते पर खर्चा करो और दूसरा जब इन पड़ोसियों का कोई काम उनके ऑफिस में पड़ जाये तो उसे भी फ्री में करो ।

भार्गव बाबू घर लौट रहे हैं । छः बजने के पहले वे घर लौट आते हैं । छः बजे नल आते हैं । नल से पानी भरने के मामले में उनको किसी पर विश्वास नहीं है । पत्नी कई बार कह चुकी है कि मैं भर लिया करूँगी आप थोड़ी देर और सैर कर लिया करो, मगर वे नहीं मानते । वे नल जाने से पहले एक एक बूँद निकाल लेना चाहते हैं । घर पहुँच कर वे बाहर के कमरे में सोये हुए बेटे को कुछ हिकारत की नज़र से देखते हैं और अंदर चले जाते हैं । ‘कब तक सोएँगे लाट साहब ?’ ये भी एक स्थायी वाक्य है जो कमोबेश रोज़ पूछा जाता है । पत्नी शुरू में इसका उत्तर देती थी, अब नहीं देती । मालूम है उत्तर प्राप्त करना इस प्रश्न का उद्देश्य नहीं है । कोई भी उत्तर उनको संतुष्ट नहीं कर सकता । उत्तर के उत्तर में उनके पास दूसरा प्रश्न तैयार होता है । घर आकर पहला काम ये किया है मोबाइल को ऑफ कर दिया है । अब ये मोबाइल नाश्ता कर लेने तक बंद ही रहेगा । भार्गव बाबू मोटर का प्लग लगा कर उसे तैयार कर रहे हैं । नल आते ही मोटर चालू कर पानी को खींचने की प्रक्रिया चालू होगी । एक एक बूँद खींच लेने की प्रक्रिया । जिसके बारे में बाद में पत्नी अपने रिश्तेदारों से कहती हैं कि ‘ये तो पानी की मछली हैं....’ । सबसे पहले ड्रम, फिर बाल्टियाँ, फिर छोटे बर्तन और फिर बात और छोटे बर्तनो तक आ जाती है । ग़नीमत है तब तक नल के जाने का समय हो जाता है । पत्नी को सबसे बड़ी चिंता यही होती है कि अगर किसी दिन नल ज़्यादा समय के लिये आ गये तो क्या होगा ? मगर अभी तक तो ऐसा हुआ नहीं है । नल जाने के बाद वे एक लम्बी साँस लेते हैं या शायद छोड़ते हैं । और अब वे तैयार हैं दूसरी बार ‘लेट’ जाने के लिये । दूसरी बार ‘लेट’ से लेट तो नहीं निकले मगर असंतुष्ट तो निकले ही हैं । इस बार वे आसव, पुष्पी और अमृत बनाने वाली कम्पनियों को गालियाँ देते हैं ‘सब साले नकली माल बेच रहे हैं’ ।

अब सुबह का अगला चरण । भार्गव बाबू ‘लेट-बाथ’ के दूसरे खंड ‘बाथ’ में जा रहे हैं । पहले मंजन, फिर शेव और फिर स्नान । हाथ में धुले हुए अंतःवस्त्र लिये, टॉवेल लपेटे, मुँह ही मुँह में कोई मंत्र बुदबुदाते वे निकल आये हैं । कपड़ों को बॉलकोनी में बँधी रस्सी पर सुखाने डाल कर अब वे भगवान से दो चार होने जा रहे हैं । भगवान जो किचन में एक प्लायवुड के मंदिर में बैठे दीवार पर लटके हैं । एक दो तस्वीरें हैं और एक दो पीतल की मूर्तियाँ हैं । भार्गव बाबू ने एक अगरबत्ती निकाल कर जलाई है और उसे घुमाते हुए कुछ अस्पष्ट सा पढ़ रहे हैं । पत्नी कई बार कह चुकी है कि एक अगरबत्ती नहीं जलाते हैं, दो जलाया करो । मगर रोज़ एक ही अगरबत्ती जलती है । पूजा के दौरान ही वे जायज़ा ले लेते हैं पूरे किचन का । पूजा हो गई, अब वापस कमरे की तरफ ।

भार्गव बाबू किचन से निकले और पत्नी किचन में चली गईं हैं । नाश्ता और लंच बाक्स बनाने के लिये । नाश्ता लगभग तय है, आम के अचार के साथ तेल में सिंके पराँठे । पराँठे दो से तीन नहीं होना है । भार्गव बाबू हर बार यही सोचते हैं कि इतना नियमित खान पान होने के बाद भी ये पेट का आकार लगातार बाहर की तरफ क्यों होता जा रहा है । ख़ैर, अब भार्गव बाबू तैयार हो रहे हैं । तैयार होने के पहले भाग में सारे शरीर पर सरसों का तेल लगाया जा रहा है, बचे खुचे बालों में भी वही लग रहा है । गाँव भले छूट गया हो लेकिन गाँव के संस्कार नहीं छूटे हैं । केश तेल, माइश्चुराइज़र और बॉडी लोशन, तीनों का एक ही विकल्प सरसों का तेल । भार्गव बाबू तैयार हो रहे हैं और उधर पत्नी ने बेटे को जगा कर, हड़का कर बाहर के कमरे से ‘लेट’ भेज दिया है । बेटा अपने सोने का दूसरा चरण भार्गव बाबू के दफ़्तर जाने के बाद पूरा करता है । आज सोमवार है, आज धुले हुए कपड़े पहने जाएँगे । भार्गव बाबू के पास ऑफिस पहनने के छः जोड़ कपड़े हैं । हर सोमवार को धुले हुए प्रेस करे हुए एक जोड़ी निकलते हैं और मंगलवार को दूसरी जोड़ी । ये दोनों जोड़ी कपड़े पूरे सप्ताह इसी प्रकार अल्टरनेट पहने जाते हैं । बीच में कोई इमरजेंसी आ जाये तो बात अलग है नहीं तो ये कपड़े रविवार को ही खूँटी से उतर कर धुलने जाते हैं । आज भार्गव बाबू ने हल्की नीली लाइनिंग की शर्ट निकाली है । वैसे उनके पास की सारी छः शर्टें ऐसी ही हैं, हल्की नीली लाइनिंग, हल्की ब्राउन लाइनिंग, हल्के हरे चौखाने आदि आदि । भार्गव बाबू अब तैयार हो चुके हैं ।

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